कोरोना महामारी में लाचार हम और हमारी लचर व्यवस्थाएं
“कोविड के कहर से कराहता भारत ,वैश्विक महामारी से जूझता भारत, कोरोना की चुनौती में असफल भारत महामारी की चपेट में भारत., कोरोना के आतंक से आतंकित भारत, कोरोना बना काल, भारत है बेहाल |
यह शब्द या कथन कहीं लिखे या गढ़े नहीं गए हैं, यह तो सत्य है -2021 के भारत का | आज राष्ट्रीय संचार माध्यमों की आवाज़ में भारत में फैले कोरोना के कहर की दास्ताँ बयाँ हो रही है तो वहीं अंतर्राष्ट्रीय मीडिया जगत की ख़बरों में भारत में कोरोना से बढ़ती मौतों का आँकड़ा लगातार दर्ज़ होता जा रहा हैं।
हम और हमारी सरकारी मशीनरी इस महामारी के आगे क्यों कमज़ोर नज़र आई? आज हम क्यों आतंकित होकर असुरक्षित महसूस करने लगे? क्यों हमें अपनी ही साँसों की स्वाभाविक क्रिया को सँभालने के लिए भटकना पड़ा? क्यों प्राण रक्षा के लिए हम असहाय-सा अनुभव करने लगे? क्यों सबने हमें हमारे हाल पर छोड़कर अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया?......इतने सारे यक्ष प्रश्न आज हमारी आम जनता के सामने खड़े कर दिए गए हैं कि वह एक मूक प्राणी बनकर सिर्फ और सिर्फ अपनों को खोकर आँसू बहाए चला जा रहा है।
यह बात कटु किन्तु सत्य है कि जब अपने प्राणों पर बन आती है तब व्यक्ति अपनी प्राण रक्षा सबसे पहले करता है, उसके बाद दूसरों को बचाने को उद्धत होता है। कोरोना महामारी के दौर में आज समाज पूरी तरह स्व-केन्द्रित हो गया है |
वह अपने जीवन को बचाए रखने के यत्न में लगा हुआ है क्योंकि हमारी सरकारों ने इस कठिन समय में हमें अकेला छोड़ दिया है। कोरोना जैसी महामारी हमारे देश में कोई अचानक नहीं आई है|
इसे देश में प्रवेश करने में पूरे ६ महीने लगे और फिर हमें पूरा एक वर्ष मिला जिसमें हम अपने नागरिकों को बचाने के उपाय कर सकते थे लेकिन हमारी राज्य सरकारों, केंद्र सरकार तथा हमारे स्वास्थ्य मंत्रालय ने कोई ठोस नीति न बनाकर इसे इतने हल्के में लिया कि मानो यह कोई सामान्य बुखार है जो एक सप्ताह में अपने-आप ठीक हो जाएगा। हमारे विशेषज्ञों को इस बात पर बार-बार चर्चा या विमर्श करना चाहिए था कि हम किस प्रकार महामारी को रोकने का उचित प्रबंधन करेंगे जिससे हम भारतीयों के प्राणों की रक्षा अधिक से अधिक प्रभावी ढंग से कर सकें।
हमारा स्वास्थ्य मंत्रालय और हमारी स्वास्थ्य रक्षा प्रणाली न जाने किस खोज-खबर में लगी रही कि एक वर्ष के भीतर इस महामारी ने विकराल रूप धारण कर लिया। सब कुछ जनता पर छोड़ कर यह मान लिया कि धीरे-धीरे सब सामान्य हो जाएगा। कुछ जानें ही तो जाएंगी, कुछ घरों में ही तो मातम फैलेगा, कुछ परिवार ही तो रोएंगे, कुछ लोगों के ही तो आँसू निकलेंगे और एक समय आएगा जब भूखा पेट आँसू पर भारी पड़ जाएगा और वह अपनों की मौतों का रोना छोड़कर पेट की आग बुझाएगा।
लेकिन ऐसा हो न सका, कितने हमारे बड़े-बड़े डॉक्टर हमारे बीच से चले गए, कितने राजनेता काल-कवलित हो गए, कितने युवा अपनी साँसों की डोर को छोड़ गए, कितनी माँओं के लाल तरसते रह गए और कितनों के पिता के साए छूट गए। सब ओर लाशों के मंज़र बिखर गए, गली-मोहल्लों की रौनक दहशत में बदल गई, बाज़ारों पर गश्त का पहरा बैठ गया और आदमी के लिए आदमी का चेहरा अनजान-सा हो गया।
बहुत छिपाया आम जनता की बेबसी और लाचारी को झूठी खबरों के चैनलों ने, बहुत छिपाया मौत को सरकारी आंकड़ों ने, बहुत झुठलाया सामने दिखती मौतों की सच्चाई को। परऐसा हो न सका क्योंकि जीवन हो या मौत वह अपना वज़ूद ज़माने को दिखाती ज़रूर है।
शमशानों में लगातार जलती चिताएं और जलने को अपनी बारी का इंतज़ार करती अर्थियाँ, कब्रगाहों में लगातार दफनाए जाते शव और दफन होने को खुदी कब्रों के इंतज़ार करते जनाज़े यहीं समाप्त नहीं हुआ ये तमाशा ,ये बढ़ा और बढ़ता गया और जा पहुंचा नदियों के किनारे रेत के ढेरों में।
रेत को देखा तो लगा कि कोई राम-नामी चादर बिछा-बिछाकर आसन जमाए बैठा है। नहीं, यह भ्रम था। यह तो उन लोगों का आराम-गृह या शांति-स्थल है जो दुनिया छोड़कर चले गए। ये सब वहाँ हमारी बीमार व्यवस्थाओं का लेखा-जोखा लेकर बैठें हैं और हमें सोचने पर मज़बूर कर रहे हैं।
आज विचारणीय प्रश्न ये है कि क्या हमने सच देखना बंद कर दिया है या हम सच बोलने की हिम्मत छोड़ चुके हैं। ठीक है सबकी अपनी-अपनी पसंद लेकिन यह नज़रिया हमारे सबके जीवन को धीरे-धीरे इतना लाचार और कमज़ोर बना देगा कि हम चाहकर भी विरोध नहीं कर पाएंगे। हमें हमारी सरकारों से, उसकी कार्य-प्रणाली से जायज़ प्रश्न करने की हिम्मत करनी होगी नहीं तो हमें अपने ही कंधों पर ऑक्सीजन ढोनी पड़ेगी, अपने ही अस्पतालों में एक बेड की भी भीख मांगनी पड़ेगी और अपनी ही बीमारी से खुद जूझना पड़ेगा।
आज इस महामारी के कठिन समय में दूसरे देशों ने भी तो उचित प्रबंधन अपनाकर अपने नागरिकों की प्राण-रक्षा हेतु वैक्सीनेशन प्रभावी ढंग से पूरा किया किन्तु हमारे देश के नागरिकों को सरकार ने यूँ ही कोरोना से जूझने को छोड़ दिया। हमें गंभीरता से सोचना होगा नहीं तो एक दिन हमारा जीवन इन्हीं अव्यवस्थाओं की बलि चढ़ जाएगा।
( डॉ० नीता कुशवाह ,आगरा )